भोजन और स्वास्थ्य देने वाली सभी वनस्पतियाँ इस भूमि पर उत्पन्न होती हैं, पृथ्वी सभी वनस्पतियों की माता और मेघ पिता हैंl

भोजन और स्वास्थ्य देने वाली सभी वनस्पतियाँ इस भूमि पर उत्पन्न होती हैं, पृथ्वी सभी वनस्पतियों की माता और मेघ पिता हैंl

यह निर्विवाद सत्य है कि विश्व के प्राचीनतम धर्मग्रंथ वेदों, पुराणों और उपनिषदों ने संपूर्ण मानव समाज के अर्थपूर्ण जीवन निर्वाह के लिये आदर्श आचार संहिता दी है। मनुष्य का जीवन शांत रहे, इसके लिये जरूरी है कि प्रकृति के सभी घटक संतुलित और शांत रहें। आज पूरा विश्व प्रकृति को सँवारने के लिये चिंतित है। प्रकृति संरक्षण के जितने भी कानून हैं, उन सभी का उद्गम वेदों में है। अथर्व-वेद तो प्रकृति आराधना की अमूल्य कृति है। ‘पृथ्वी सूक्त’ में कहा गया है ‘माता भूमि: पुत्रोहम पृथ्वीव्या:’ यानी पृथ्वी मेरी माता है और मै उनका पुत्र हूँ। वेदों के अध्ययन से यह भी सुस्पष्ट है कि जब पृथ्वी हमारी माँ है तो इस पर बहने वाली नदियों, इसकी गोद में उगने वाली वनस्पति, चिर-स्थिर पहाड़ों, स्वच्छंद विचरण करने वाले वन्य-जीव से हमारा भी गहरा रिश्ता है। वे उतने ही संवेदनशील हैं, जितने हम। नदियों की सेवा और उन्हें साफ़ रखने की कल्पना वेदों, पुराणों से ही उपजी है।  प्रकृति में प्रदूषण से आज पूरा समाज चिंतित हैं। ‘अथर्व-वेद’ में कहा गया है कि पौधे और जड़ी-बूटियाँ विष को समाप्त करती हैं। यह भी प्रार्थना की गई है कि नदियाँ और वायु भलीभाँति संयुक्त होकर प्रवाहित हों और पशु-पक्षीगण संयुक्त रूप से उड़ते और विचरते रहें।
‘अथर्व-वेद’ में विषमुक्ति की कामना की गई है। ‘हे मनुष्य जो तू खेती का उपजा धान्य खाता है और जो तू दूध व जल पीता है, चाहे वह नया हो या पुराना, सब अन्नादि तेरे लिये विषरहित हों।’ यह भी सत्य है कि अतिशय भोग-तृष्णा से हमारी नदियाँ और अन्य वन संपदा विवश हो जाती हैं। यदि नदियों में विष भर गया, तो मनुष्यों की पीढ़ियाँ लग जायेंगी इसे विषमुक्त करने में। यही समय है कि हम स्वयं को इतना चेतना सम्पन्न बना लें कि नदियों, पेड़-पौधों का स्मरण होते ही सिर श्रद्धा से झुक जाये। ‘ऋग्वेद’ में तो राजा को आदेशित किया गया है कि वह औषधि जल को धारण करने वाली पृथ्वी की सुरक्षा करे। ‘अथर्व-वेद’ में स्पष्ट उल्लेख है कि भूमि को किसी भी प्रकार से प्रदूषित करना हिंसा है।

पर्यावरण को दूषित करने वालों को चेतावनी दी गई है कि वे जल स्त्रोतों को गंदा न करें। राजा को भी यथावत प्रबंध करने के लिये आदेश दिया गया है। सार तत्व यह है कि जल उत्कृष्ट माता है क्योंकि यह पर्यावरण का निर्माण ही नहीं, वरन् पालन भी करता है। इसलिये अमृतमय है।प्रकृति प्रत्येक जीव को जीवन देती है। मनुष्य भी उनमें शामिल है। हर जीवन और वनस्पति अपने-अपने तरीकों से प्रकृति की सेवा करते हैं। प्रकृति का प्रत्येक अवयव जीवंत है। सह-अस्तित्व से वर्षों जीवित रहते हैं। नदियों को जननी और पहाड़ों को पिता समान माना गया है। वे सिर्फ देते हैं। दया और करूणा से जीवों को उपकृत करते हैं। अब हमें यह सोचना है कि हमारा क्या कर्त्तव्य है। अब हमारी बारी है कि हम इनकी सेवा करें। 

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